उत्तर प्रदेश की सियासत में अपराधियों का बोलबाला अचानक नहीं बढ़ा। पहले पहल अपराधी नेताओं के पीछे चला करते थे, उनके कहने पर लोगों को डराते धमकाते थे। मुलायम सिंह यादव ने तो अपने राजनैतिक कॅरियर के दौरान तमाम दबंगों को खूब पाला पोसा था।
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उत्तर प्रदेश के बाहुबली डीपी यादव, संजय भाटी, मदन भैया, धनंजय सिंह, रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, अमरमणि त्रिपाठी, गुड्डू पंडित, अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना, रमाकांत, उमाकांत, श्रीप्रकाश शुक्ला, बादशाह सिंह, लटूरी सिंह, विजय मिश्रा, वीरेन्द्र प्रताप शाही, ओम प्रकाश गुप्ता, राम गोपाल मिश्रा, अतीक अहमद, त्रिभुवन सिंह, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी, भाजपा नेता कृष्णा नंद राय और हाल में मारा गया विकास दुबे जैसे तमाम बाहुबलियों के नाम से लोग कांपते थे। इसमें से करीब-करीब सभी बाहुबलियों को किसी न किसी राजनैतिक दल की सरपस्ती हासिल थी तो कई ऐसे भी थे जो बाहुबल के सहारे विधान सभा से लेकर लोकसभा चुनाव तक जीतने की कूवत रखते थे। याद कीजिए किस तरह से 2019 के आम चुनाव में गाजीपुर लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी मनोज सिन्हा को बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी से चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
उत्तर प्रदेश की सियासत में अपराधियों का बोलबाला अचानक नहीं बढ़ा। पहले पहल अपराधी नेताओं के पीछे चला करते थे, उनके कहने पर लोगों को डराते धमकाते थे। इसकी शुरूआत कब हुई यह बात दावे के साथ कोई नहीं कह सकता है, लेकिन समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनैतिक कॅरियर के दौरान तमाम दबंगों को खूब पाला पोसा था। बाद में अन्य दलों ने भी अपराधियों का सहारा लेना शुरू कर दिया। अपराधी नेताओं के बूथ मैनेजमेंट का हिस्सा हुआ करते थे। कैंपेन की कमान संभालते थे, संसाधनों का जुगाड़ करते थे और बदले में सफेदपोशों से उन्हें संरक्षण और सरकारी टेंडर, जमीनों पर कब्जा, खनन के ठेके आदि हासिल करने में मदद मिलती थी। इस संरक्षण के बूते ही अपराधियों ने अपना समानांतर साम्राज्य खड़ा कर लिया था, लेकिन यह दौर ज्यादा लंबा नहीं चला। क्योंकि नेताओं के पीछे चलने वाले गुंडे-माफियाओं में भी चुनाव लड़ने की इच्छा पनपने लगी। इसीलिए कुछ बड़े अपराधियों ने रानजीति की कमान खुद संभालनी शुरू कर दी। यह उत्तर प्रदेश में वह दौर था जब कांग्रेस कमजोर हो रही थी और सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय नायकों का उभार हो रहा था। इन नायकों का मुखौटा पहनकर कई अपराधी भी राजनीति में सीधे दाखिल हो गए। कुछ रॉबिनहुड की शक्ल में भी आए। अपराधियों का संगठित नेटवर्क और सियासत दोनों पर कब्जा हो गया। मुख्तार अंसारी इसकी सबसे बड़ी बानगी थे, मुख्तार ने कई बार विधान सभा चुनाव जीता। कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बसपा ने उसे विधायिकी का टिकट दिया। मुख्तार जरूरत पड़ने पर निर्दलीय तौर पर भी चुनाव लड़ने से पीछे नहीं रहा। यहां तक कि मुख्तार अंसारी ने एक अपनी सियासी पार्टी तक बना ली थी। मुख्तार की तरह ही बाहुबली अतीक अहमद ने भी राजनीति में खूब नाम कमाया और कभी माया तो कभी मुलायम का खास बना रहा।
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खैर, प्रदेश में नेता और अपराधी का गठजोड़ अधूरा रहता या इतना प्रभावशाली न बन पाता यदि इसमें एक तीसरा पिलर नौकरशाही का न जुड़ता। ऊपरी तल पर जब ब्यूरोक्रेसी सत्ता को साधने के क्रम में नेता और अपराधी गठजोड़ के लिए रेड कारपेट बिछाकर अपने आराम की जगह तलाश रही थी, तब निचले स्तर पर भी नौकरशाही इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही थी। सांसदी और विधायिका के ही नहीं ग्राम पंचायत के चुनाव भी चारित्रिक आधार की बजाए धनबल और बाहुबल से जीतने का चलन शुरू हो गया। नकदी बंटने लगी और शराब के प्रबंध होने लगे जिसने प्रदेश की सियासत का स्वरूप बदल कर रख दिया। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं।
-अजय कुमार